अब ऐसी ख़ामोशी क्या हुई ज़माने में
लोग घबरा जाते हैं सच बताने में
अब यूं मुसलसल कौन हमसे बातें करे
हमें कहां देर लगती है अश्क बहाने में
होगी राहत जो कोई अब(पानी) की बात करे
नहीं तो देर कहां लगती है आग लगाने में
वो भी ज़मीं पर आ गिरा बदनसीब
सदियां बीत गई जिसे पंख लगाने में
ये कैसा बेदर्द दौर आया ज़िंदगी का
सब कुछ सीख गए इबरतखाने में
ये होश में भी बेहूदगी आ गयी हमें
वर्ना देर कहां लगती थी प्यास बुझाने में
रूहानियत तो आदत ही कुछ ऐसी है
हाथ ख़ुदा का ही है हमें नायाब बनाने में
ज़रूरी कहां तुम रोज़ राबता ढूंढो
सुकून तुम्हें भी मिलेगा कहीं ठहर जाने में
देख लेंगें जो भी असर होगा उसकी याद का
रात लग ही जाती है सुब फिर से आने में