इक नाम से आंखे नम कैसे हो जाती हैं
अक़सर तूफ़ां में रेत गुम कैसे हो जाती है
कितना बेचैन है हर ज़र्रा ठहर जाने को
फिर उसकी ज़िंदगी क़याम कैसे हो जाती है
सहर होते ही लोग सड़कों पर दौड़ते हैं
ख़ुशबू दौलत की वहम कैसे हो जाती है
लोग खुशियां मनाते होंगें जन्मदिन पर
मैं सोचता हूं उम्र कम कैसे हो जाती है
उसका कितना मशहूर कारोबार है दर्द का
तो फिर वो किसी की हमदम कैसे हो जाती है
उसके निग़ाहों के कूचे तो सूखे पड़े हैं
बारिश यहां बे-मौसम कैसे हो जाती है
अच्छा तो मेरी ख़ुशी अब अपने नाज़ में है
मैं लिखता हूं ग़ज़ल नज़्म कैसे हो जाती है
कितने रिश्ते टूटते देखे हैं मैंने मग़र किसी
की ज़िंदगी किसी के नाम कैसे हो जाती है
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