तुम्हें पाना मेरी चाहत नहीं
ग़मो का समंदर पा लिया है मैंने
ये जो काफिला आँसुओ निकलता है
सीधा वहीं जाता है…
तेरे साथ जो लम्हें मैंने गुज़रे थे
कैद कर लेता उन्हें मेरे पास जो शीशे का जाल है
खुद ही अपनी एक क़ायनात बना लेता
कतरा-कतरा जोड़कर उसे रंगवा भी लेता…
ये जो ताबीर का मकां बना लिया है मैंने
लोंगो की नज़र में आ ही जाता है
मय्यसर तुझमें रहता हूं
नहीं तो कब का तोड़ भी देता…
इनायत मेरी तुझे मिली है
रिवायतें-ऐ-इश्क़ किया था मैंने
मुसलसल न किया होता तो
तू कब का चल बसा होता…
By:- Gaurav Singh
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