कुसूर इतना है बस मेरा मैं बेक़सूर था
सज़ाएं इतनी दी उसने मैं खुद को मुज़रिम मान बैठा…
लिबाज़ में दोस्त के वो आता था
रिवाज़ भी दुश्मनी का वो क्या खूब निभाता था…
दुःखों के अलावा उसने दिया क्या
जाते-जाते मेरी जान का सौदा भी कर गया वो…
कुछ कम ही समझा करता था मैं खुद को
वो खामखाँ उलझा कर चला गया…
कोशिशें काफ़ी की मैंने जुड़ जाने की
वो है कि कांच की तरह तोड़ता रहा…
By:- Gaurav Singh
Waah…
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